शिक्षा प्राप्त कर नहीं पालें अहंकार - राज्यपाल
शिक्षा प्राप्त कर नहीं पालें अहंकार - राज्यपाल
जयपुर, 17 दिसम्बर। मयूर स्कूल के 43 वे वार्षिक पारितोषिक वितरण समारोह में राज्यपाल श्री कलराज मिश्र ने कहा कि शिक्षा प्राप्त कर किसी प्रकार का अहंकार नहीं पालना चाहिए। उन्होंने संविधान की उद्देशिका का वाचन कराया तथा मूल कर्तव्यों की जानकारी दी।
राज्यपाल श्री कलराज मिश्र ने कहा कि शिक्षा जीवन को गढ़ती है। वही समाज आगे बढ़ता है जो शिक्षा के क्षेत्रा में अग्रणी होता है। शिक्षा की नींव विद्यालय ही तैयार करते है। विद्यालय केवल शिक्षा प्रदान करने के केन्द्र ही नहीं होते बल्कि हमारे यहां इसे संस्कार निर्माण की पाठशाला से जाना गया है। शिक्षा समस्त प्रकार के बन्धनों से मुक्त कराती है। इसके बहुत गहरे अर्थ है। हम उदात्त जीवन मूल्यों की ओर प्रवृत्त हों। शिक्षा प्राप्त करने के बाद हम उसे पाने का अहंकार नहीं पाले। हम बहुत अच्छा करें परन्तु अपने किए पर कभी अभिमान नहीं करें।
उन्होंने कहा कि राष्ट्र सर्वाेच्च है। उसके प्रति हमारे कर्तव्य के लिए सदा प्रतिबद्ध होकर कार्य करने की आवश्यकता है। हम संविधान की संस्कृति से निरन्तर जुडे़ रहें। भारतीय संविधान अधिकारों और कर्तव्यों का बहुत सुन्दर समन्वय है। भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों का संविधान एक प्रकार से संवाहक है।
उन्होंने कहा कि संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे। उनके निर्देशन में भारत का संविधान लिखा गया। शान्ति निकेतन के महान कलाकार श्री नन्दलाल बोस और उनके शिष्यों ने इसमें चित्र उकेरे। संविधान में 22 भाग है। हर भाग की शुरूआत में चित्र बने है। श्री नंदलाल बोस के निर्देशन में शान्ति निकेतन के कलाकारों ने अद्भुत चित्र बनाए हैं। इनमें मोहन-जोदड़ो, वैदिक काल, रामायण, महाभारत, बुद्ध के उपदेश, महावीर के जीवन, मौर्य, गुप्त काल, इसके अलावा सुभाष, हिमालय से लेकर सागर आदि के चित्र बहुत सुन्दर है। संविधान की मूल प्रति के चित्र भारतीय इतिहास की भी एक प्रकार से विकास यात्रा है। उन्हें देखने के पश्चात लगता है कि एक-एक भाग उसके चित्र देश के लोकतन्त्र का सन्देश है। मौलिक अधिकारों मेें गीता का सन्देश है। संविधान का उपयोग समाज को दिशा देने में होता है। मूल संविधान में चित्र है। उसकी प्रतियों में नही है। संविधान पार्क में सभी संदेशों को स्थान दिया गया है। उद्देशिका और मौलिक कर्तव्यों की जानकारी होनी चाहिए। संविधान सभी को अपना बनाता है।
उन्होंने कहा कि भारत का संविधान हमारा सर्वाेच्च विधान ग्रंथ ही नहीं है बल्कि यह भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्य की उदार दृष्टि का संवाहक है। संविधान निर्माण के पीछे की मूल मानसिकता लोकतन्त्र के मूल्यों में विश्वास जगाती है। संविधान की संस्कृति से सभी नागरिकों का जुड़ाव रहा। राजभवन में संविधान उद्यान का निर्माण करवाया है। संविधान को वहां मूर्तियों और कलात्मक निर्माण में जीवन्त देखा जा सकता है।
उन्होंने कहा कि शिक्षा वही सार्थक है जो जीवन के आलोक पथ से जुड़ी हो। संविधान की शिक्षा भी इसलिए जरूरी है। हम जो पढे़ उसे रटें नहीं, मन से जिएं। परीक्षा जरूरी है पर उससे जुड़ी शिक्षा मानव को मशीनी बनाती है। प्राचीन भारत में किसी प्रकार की परीक्षा नहीं होती थी। न कोई उपाधि ही दी जाती थी। अभ्यास नियम से करने का पता आचार्य लगा लेते थे। विद्यार्थी अध्ययन और अनुसंधान में सदैव लगे रहते थे। इसके बाद विवाद और शास्त्रार्थ में सम्मिलित होकर अपनी येाग्यता का प्रमाण देते थे।
उन्होंने कहा कि भारतीय शिक्षा में आर्चाय का स्थान बड़ा ही गौरव का था। उनका बड़ा आदर और सम्मान होता था। आचार्य पारंगत, विद्वान और सदाचारी होते थे। वे विद्यार्थियों के कल्याण के लिए सदा कटिबद्ध रहते थे। शिक्षा में अध्यापक, छात्रों के चरित्र निर्माण पर सर्वाधिक ध्यान देते थे। विद्यार्थी भी गुरू का सम्मान और उनकी आज्ञा का पालन करते थे। आचार्य का चरण स्पर्श कर दिनचर्या के लिए प्रातःकाल ही प्रस्तुत हो जाते थे। अध्यापन भी विद्यार्थी के योग्यतानुसार होता था। विषयों को स्मरण रखने के लिए कथा, कहानियों और उद्धरणों से गुरू समझाते थे। आधुनिक संदर्भाे में भी शिक्षा की इसी पद्धति पर कार्य करने की आवश्यता है। नई शिक्षा नीति के आलोक में विकसित भारत 2047 के लिए विद्यार्थी तैयार होने के लिए शिक्षण संस्थानों की ही भविष्य में सवाधिक प्रासंगिकता रहनी है