चुशूल:- चीनी सीमा से 15 कि.मी . दूर हिमालय के पहाड़ो में 16000 फीट की ऊँचाई पर एक छोटा सा गाँव है। 13-कुमायूं रेजिमेंट की कंपनी के 114 अहीर वीरों की याद में चुशूल से 12 कि.मी.की दूरी पर एक स्मारक बनाया गया है

चुशूल:- चीनी सीमा से 15 कि.मी . दूर हिमालय के पहाड़ो में 16000 फीट की ऊँचाई पर एक छोटा सा गाँव है। 13-कुमायूं रेजिमेंट की कंपनी के 114 अहीर वीरों की याद में चुशूल से 12 कि.मी.की दूरी पर एक स्मारक बनाया गया है

चुशूल:- चीनी सीमा से 15 कि.मी . दूर हिमालय के पहाड़ो में 16000 फीट की ऊँचाई पर एक छोटा सा गाँव है। 13-कुमायूं रेजिमेंट की कंपनी के 114 अहीर वीरों की याद में चुशूल से 12 कि.मी.की दूरी पर एक स्मारक बनाया गया है जिसमें सभी वीरों के नाम अंकित हैं अहीर धाम रेजांग ला में स्थापित है ।

भारत भूमि सदा वीर यदुवंशियों के संरक्षण में रही है । ऐसे ही 114 अहीर वीर-जवानों ने सन् 1962 के , भारत -- चीन युद्ध के दौरान " रेजांग ला " क्षेत्र में अपने प्राणों की आहुति देकर राष्ट्र और यादव वंश का सिर ऊँचा किया है । 17 -18 नवम्बर की रात्रि में चीन ने रेजांग ला के आस पास अपने सैनिक तैनात कर दिए थे ।उस दिन वहाँ का तापमान शून्य से 15 डिग्री सेल्सियस नीचे था । रात्रि के 10 बजे तेज बर्फीला तूफान शुरू हुआ जो 2 घंटे तक चलता रहा ।भारतीय सैनिक मैदानी क्षेत्र से लाकर वहाँ तैनात किये गए थे । वे इस तरह की बर्फीली ठण्ड में रहने के अभ्यस्त नहीं थे। 18 नवम्बर रविवार को , दीपावली के दिन , ये वीर " अहीर सैनिक " , विषम परिस्थिति में प्राणों की बाजी लगाकर मातृभूमि की रक्षा के लिए खून की होली खेल रहे थे ।सुबह के 5 बजे चीनी सैनिको ने रेजांग ला की चौकी पर भीषण हमला कर दिया ।भारतीय जवानो ने जबरदस्त जवाबी कार्रवाई करते हुए उस हमले को विफल कर दिया ।वहाँ की नालियाँ दुश्मनो की लाशों से भर गईं। इसके विफल होने पर दुश्मन की फ़ौज़ ने एक और जबरदस्त हमला किया, जिसमें भी दुश्मन को मुंह की खानी पडी, तब चीनी सैनिको ने तीसरी बार चौकी के पीछे से , भारी मशीन गन, मोर्टार, ग्रेनेड आदि से हमला बोल दिया । वहाँ उस समय चीनी सैनिकों की इतनी लाशें बिछी पड़ी थीं कि हमलावरो को अपने ही सैनिकों की लाशो के ऊपर से गुजरना पडा। दुश्मन की फौज ने भारतीय चौकी को चारों ओर से घेर लिया और तोपों से भारी गोले बरसाने शुरू कर दिए । भारतीय सैनिक चीनियों की अपेक्षा जहाँ संख्या में बहुत कम थे वहीं भारतीय सेनिकों के हथियार और गोला बारूद भी अपेक्षाकृत कम उन्नत थे , फ़िर भी वे बड़ी वीरता से लड़े। गोला बारूद समाप्त हो जाने पर भी जांबाजों ने हार नहीं मानी । वे मोर्चे से बाहर निकल आये और निहत्थे ही ” दादा किशन की जय ” का युद्धघोष करते हुए चीनी सैनिकों पर टूट पड़े , जो भी चीनी सैनिक उन्हें मिला , उसे पकड़कर चट्टानों पर पटक पटक कर मार डाला। कुछ तो अपनी राइफल में लगी संगीन ( चाकू ) से ही दुश्मनों को मारने लगे चीनियों को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी , उनके रोंगटे खड़े हो गये । एक अनुमान के अनुसार इस युद्ध में लगभग 3000 चीनी सैनिक मारे गए थे। 13 - कुमायूं रेजिमेंट कंपनी के 123 में से 114 अहीर जवान शहीद हुए थे । इस युद्ध में भारतीय सेना की रेजांग-ला-कंपनी के नाम से जानी जाने वाली चार्ली कंपनी के अहीरवाल-जवानों ने डटकर मुकाबला किया था। उस दौर में भारतीय सैनिकों के पास खाने-पानी के अलावा गोला-बारूद की भी कमी थी, इसके बावजूद हमारी टुकड़ी ने रणभूमि नहीं छोड़ी और अपनी हिम्मत के सहारे चीनी सैनिकों से लड़ते रहे ! युद्ध विराम हो जाने के तीन महीने बाद जब पहाड़ पर बर्फ पिघली और उनके अवशेषों को खोजकर रणभूमि से सम्मान सहित लाया गया तो उस समय भी कुछ टुकड़ों के हाथ से हथियार छूटे नहीं थे , सभी तने हुए थे , मानो अब भी दुश्मनों को ललकार रहे हो। इन शूरवीर " अहीर शहीदों " को हमारा शत्-शत् नमन्।